सोमवार, 22 अप्रैल 2013

इन आँखों में कैसे कैसे मंज़र लेकर निकले हैं.


-अशोक रावत

ज़ख़मों पर रख देंगे जो नौसादर ले कर निकले हैं,
राहबरों की मंशा क्या है ख़ंजर लेकर निकले हैं.

कापी पुस्तक छोड़ गये हैं सोच रहे हैं क्या होगा,
आज सुबह बच्चे बस्तों में पत्त्थर लेकर निकले हैं.

हम से मत पूछो जब अपनी बस्तीसे बहर निकले,
इन आँखों में कैसे कैसे मंज़र लेकर निकले हैं.

जाने क्या होनेवाला है अम्न चाहनेवाले भी,
जब भी घर से बाहर निकले ख़ंजर लेकर निकले हैं.

थोड़ी दूर चलेंगे फिर ये अपनी पर आजायेंगे,
अपने साथ उसूलों का जो लश्कर लेकर निकले हैं.

राह बदलते मिल जायेंगे अगले ही चौराहे पर,
जो भी ज़ेहन में गाँधी और जवाहर लेकर निकले हैं.

फिर भी यूँ लगता है जैसे मंज़िल कोई दूर नहीं,
हम चाहे परवाज़ों पर टूटे पर लेकर निकले हैं.

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