सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

इसीलिए गाता हूँ नारे - डॉ. हरिओम पंवारे

मैंने जो कुछ भी गाया है तुम उसको नारे बतलाओ
मुझे कोई परवाह नहीं है मुझको नारेबाज बताओ
लेकिन मेरी मजबूरी को तुमने कब समझा है प्यारे |
लो तुमको बतला देता हूँ मैंने क्यूँ गाये हैं नारे ||
जब दामन बेदाग न हो जी
अंगारों में आग न हो जी
घूँट खून के पीना हो जी
जिस्म बेचकर जीना हो जी
मेहनतकश मजदूरों का भी
जब बदनाम पसीना हो जी
जनता सुना रही हो नारे
संसद भुना रही हो नारे
गम का अँगना दर्द बुहारे
भूखा बचपन चाँद निहारे
कोयल गाना भूल रही हो
ममता फाँसी झूल रही हो
मावस के डर से भय खाकर,
पूनम चीख़े और पुकारे
हो जाएँ अधिकार तुम्हारे
रह जाएँ कर्तव्य हमारे
छोड़ - छाड़ जीवन-दर्शन को तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||
निर्वाचन लड़ते हैं नारे
चांटे से जड़ते हैं नारे
सत्ता की दस्तक हैं नारे
कुर्सी का मस्तक हैं नारे
गाँव-गली, शहरों में नारे,
सागर की लहरों में नारे
केसर की क्यारी में नारे
घर की फुलवारी में नारे
सर पर खड़े हुए हैं नारे,
दाएँ अड़े हुए हैं नारे
नारों के नीचे हैं नारे
नारों के पीछे हैं नारे
जब नारों को रोज पचाने
को खाने पड़ते हों नारे
इन नारों से जान बचाने
को लाने पड़ते हों नारे
छोड़ गीत के सम्मोहन को तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||
जब चन्दामामा रोता हो
सूरज अँधियारा बोता हो
जीवन सूली-सा हो जाये,
गाजर-मूली सा हो जाये,
पूरब ज़ार-ज़ार हो जाये
पश्चिम को आरक्षण खाए
उत्तर का अलगावी स्वर हो
दक्षिण में भाषा का ज्वर हो
अपने बेगाने हो जायें
घर में ही काँटे बो जायें,
मानचित्र को काट रहे हों
भारत माँ को बाँट रहे हों
ग़ैर तिरंगा फाड़ रहे हों
अपने झण्डे गाड़ रहे हों,
जब सीने पर ही आ बैठें
भारत माता के हत्यारे
छोड़ - छाड़कर सूर-कबीरा तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||
कलियाँ खिलने से घबरायें
भौंरे आवारा हो जायें
फूल खिले हों पर उदास हों,
पहरे उनके आस-पास हों
पायल सहम-सहम कर नाचे,
पाखण्डी रामायण बाँचे
कूटनीति में सब चलता हो,
मर्यादा का मन जलता हो
उल्लू गुलशन का माली हो
पहरेदारी भी जाली हो
संयम मौन साध बैठा हो
झूठ कुर्सियों पर ऐंठा हो
चापलूस हों दरबारों में,
ख़ुद्दारी हो मझ्धारों में
बलिदानी हों हारे-हारे,
डाकू भी लगते हों प्यारे
छोड़ चरित्रों की रामायण तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||

लिपटें न आप मुझसे अमरबेल की तरहडा. विष्णु सक्सेना


अब चल रही है जिंदगी ढकेल की तरह।

घर मुझको लग रहा है किसी जेल की तरह।




कल मेरी ज़िदंगी थी जंज़ीर ज़ुल्फ की,

दम घोंटती है अब वही नकेल की तरह।




मैं खुद ही बिखर जाउंगा लगने से पेश्तर,

मत फेंकिये किसी पै मुझे ढेल की तरह।




मैं ग़म के बगीचे का इक सूखा दरख़त हूँ,

लिपटें न आप मुझसे अमरबेल की तरह।




फूलों ने दिये ज़ख्म तो शूलों ने सीं दिये

सब खेलते हैं मुझसे यूँ ही खेल की तरंह।




अब तो करो रहम हमें आँखें न दिखाओ

बातें ही लग रहीं हैं अब गुलेल की तरह।



कल मेंने दिल की आग पर सेंकी थीं रोटियाँ

आँसू सभी जला दिये थे तेल की तरह।

शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

आज फिर से है संकट खड़ा हो रहा-विवेकशील

आज फिर से है संकट खड़ा हो रहा।
कल था छोटा मगर अब बड़ा हो रहा।
बच सके मातृभूमि जतन कीजिये।
आगे बढ़ बांध सर पर कफन लीजिये।
आप अपनी ही मस्ती में क्यूं चूर हैं।
बस सुनामी की लहरें कुछ ही दूर हैं।
देशद्रोही का खेमा बड़ा हो रहा।
आज फिर से है..............................।

लूटा धन को है दौलत को सम्मान को।
तोड़े मन्दिर न छोड़ा है भगवान को।
और हम फिर से मन्दिर ही गढ़ते रहे।
भय के मारे थे गीता ही पढ़ते रहे।
गीता पढ़ ली न समझे अभी सार को।
डूबी नैया न थामा है पतवार को।
अपना मन पाप का इक घड़ा हो रहा।
आज फिर से है..............................।

हो मनुज तो स्वयं के ही हित कुछ करो।
जाग जाओ अरे स्वांस फिर से भरो।
हो सका जाग कर मृत्यु टल जायेगी।
कुछ किया तो ये सृष्टि बदल जायेगी।
छोड़कर लोभ, लालच जुड़ो प्रीति से।
संगठित हो करो काम कुछ नीति से।
देश पर आंख अपनी गढ़ा वो रहा।
आज फिर से है.............................।