सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं

                                   -कवि दुष्यंत कुमार
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं 

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं 

वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको
क़ायदे-क़ानून समझाने लगे हैं 

एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिसमें तहख़ानों में तहख़ाने लगे हैं 

मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने
उस तरफ़ जाने से क़तराने लगे हैं 

मौलवी से डाँट खा कर अहले-मक़तब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं 

अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम
आदमी को भूल कर खाने लगे हैं

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

राष्ट्र रक्षा के हित जागरण चाहिए


vivekshil...


दीप जलने लगें तो, बढ़े लालिमा।
अनवरत ज्योति से, दूर हो कालिमा।
खो ही जाए तिमिर एक आलोक से।
पाप मिट जाए सब राम के लोक से।
मुक्त मन, ना कि अब, आवरण चाहिए-2
राष्ट्र रक्षा के हित जागरण चाहिए। 

छीने अब ना किसी की भी, रोटी कोई।
लूट से ना बने, बंगला कोठी कोई।
अब कृषक ना कोई आत्मघाती बने।
अब न मजदूर निर्बल पै कोई तने।
ऊंच ना नीच, सम, आचरण चाहिए-2
राष्ट्र रक्षा के हित............................।

अब न तड़पे कोई बृद्ध, विधवा कहीं।
मान रक्षा को चीखे, न अबला कहीं।
तुच्छ ‘‘मैं’’ से न हिंसा की घातें बढ़ें।
स्वार्थ प्रेरित परस्पर न बन्धू लडे़ं।
देश में ऐसा, वातावरण चाहिए-2
राष्ट्र रक्षा के हित.............................।

अनवरत राष्ट्रभक्ति का, संचार हो।
देश में कोई जीवित, न गद्दार हो।
धर्मच्युत धन के बल पर न कोई करे।
ना मजहब राष्ट्र खंडन की बातें करे।
ऐसा जीवन, कि या फिर, मरण चाहिए-2
राष्ट्र रक्षा के हित.............................। 

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

इन आँखों में कैसे कैसे मंज़र लेकर निकले हैं.


-अशोक रावत

ज़ख़मों पर रख देंगे जो नौसादर ले कर निकले हैं,
राहबरों की मंशा क्या है ख़ंजर लेकर निकले हैं.

कापी पुस्तक छोड़ गये हैं सोच रहे हैं क्या होगा,
आज सुबह बच्चे बस्तों में पत्त्थर लेकर निकले हैं.

हम से मत पूछो जब अपनी बस्तीसे बहर निकले,
इन आँखों में कैसे कैसे मंज़र लेकर निकले हैं.

जाने क्या होनेवाला है अम्न चाहनेवाले भी,
जब भी घर से बाहर निकले ख़ंजर लेकर निकले हैं.

थोड़ी दूर चलेंगे फिर ये अपनी पर आजायेंगे,
अपने साथ उसूलों का जो लश्कर लेकर निकले हैं.

राह बदलते मिल जायेंगे अगले ही चौराहे पर,
जो भी ज़ेहन में गाँधी और जवाहर लेकर निकले हैं.

फिर भी यूँ लगता है जैसे मंज़िल कोई दूर नहीं,
हम चाहे परवाज़ों पर टूटे पर लेकर निकले हैं.

नारी सृष्टि रचेता है


 -चन्द्रवीर सिंह चन्द्र

सिकन्दराराव 9690188437

सृष्टि रचेता की सृष्टि में
नारी सृष्टि रचेता है
मानव जीवन-यापन की वह
अद्भुत जीवन रेखा है

हर युग में नारी की पूजा
वेदों ने दर्शाई है
देवों ने सम्मान किया
नारी में देख भलाई है

यों तो अत्याचार जगत में
हर युग में होते आये हैं
लेकिन अत्याचारी भी तब-
तब दण्डित होते आये है

आज कलियुगी शासन है
जो मूक बना बैठा रहता है
सरेआम नारी की अस्मत
लूट दरिन्दे जाते हैं

नेता को कुर्सी का लालच
अधिकारी को धन का लालच
दो-दो चेहरे लगा के सब
कानून का पाठ पढ़ाते हैं

अपराधी अपराध कर रहा
बेकसूर बतलाते हैं
सत्यमेव जयते का नारा
फिर भी लोग लगाते हैं

गुरुवार, 28 मार्च 2013

झरें रंग प्यार के बस यार, अब की बार होली में- विवेकशील


झरें रंग प्यार के बस यार, अब की बार होली में
रूठे से मधुर मनुहार अब की बार होली में

लगायें हम हृदय सबको पुराने घाव मिट जायें
पले मन में बिखरने के, वो सारे भाव मिट जायें
बढ़ायें प्यार का संसार अब की बार होली में
झरें रंग प्यार के बस यार, अब की बार होली में

बढ़े दामों में दीनों का बहुत निकला दिवाला है
कहें पकवान की अब क्या, गया मुंह का निवाला है
रहे ना कोई भी लाचार, अब की बार होली में
झरें रंग प्यार के बस यार, अब की बार होली में

बदलते दौर में बन्धू, जगाना है जवानी को
चली आई जो सदियों से बदलना है कहानी को
हटानी धर्म से तलवार, अब की बार होली में
झरें रंग प्यार के बस यार, अब की बार होली में

हमें आतंक, अत्याचार को जड़ से मिटाना है
सुखी औ’ शक्ति से सम्पन्न भारत को बनाना है
लें हम संकल्प दिल से यार, अब की बार होली में
झरें रंग प्यार के बस यार, अब की बार होली में

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

हिन्दू जिन्दाबाद रहेगा - विवेकशील राघव

धर्म भावना मन में होगी, जब ना जाति वाद रहेगा।
हिन्दू जिन्दाबाद रहा है, हिन्दू जिन्दाबाद रहेगा।

जातिवाद को ढाना होगा
भारत एक बनाना होगा
अगड़े-पिछड़े नहीं रहेंगे
घृणा त्याग सब गले मिलेंगे
सबका जीवन गति पकड़ेगा
कष्ट किसी को ना जकड़ेगा

सबको सत्ता का संरक्षण, हर प्राणी आबाद रहेगा
हिन्दू जिन्दाबाद रहा है, हिन्दू जिन्दाबाद रहेगा।

परमारथ के लिए जियेंगे
पर सुख को कुछ गरल पियेंगे
बन्धु-भाव हर मन में होगा
कितना प्रेम वतन में होगा
पुनः राष्ट्र का बल जागेगा
निज स्वारथ का छल भागेगा

द्वेष,दंभ को जगह न होगी, मधुर, सुखद संवाद रहेगा
हिन्दू जिन्दाबाद रहा है, हिन्दू जिन्दाबाद रहेगा।


धर्म-ध्वजा ले बढ़ जायेंगे
दुष्ट-दलों पर चढ़ जायेंगे
हर उन्माद मिटा डालेंगे
अरि को धूल चटा डालेंगे

आतंकों का बीज मिटेगा
फिर ना भारत देश बंटेगा

राणा और शिवा का भारत, सदियों तक आजाद रहेगा
हिन्दू जिन्दाबाद रहा है, हिन्दू जिन्दाबाद रहेगा।

फिर भारत सीमा तोड़ेगा
टूट चुके को फिर जोड़ेगा
क्या है धर्म बता देंगे हम
क्या सत्कर्म सिखा देंगे हम
यह दुनिया स्वीकार करेगी
ओउम् ध्वनि विस्तार करेगी

ज्ञान, भक्ति होगी धरती पर, ओउम् सभी का नाद रहेगा
हिन्दू जिन्दाबाद रहा है, हिन्दू जिन्दाबाद रहेगा।

मैं दीपक बन जाऊँ - कवि फतहपाल सिंह

मैं दीपक बन जाऊँ !
जीर्ण कुटी के अन्धकार में, अपना राग सुनाऊँ
दृष्टि-पथ बन जाये जीवन,
ज्योतित कर दूं जग का कन-कन
ऐसी ज्योति जलाऊँ,
मैं दीपक बन जाऊँ !
राग भरे नव शिशु का जीवन,
आल्हादक हो मेरा तन-मन
प्रेम का राग सुनाऊँ
मैं दीपक बन जाऊँ !
भटक गया हो तम में जीवन,
ज्ञान ज्याति से भर दूं मैं मन
अपना कर्म निभाऊँ
मैं दीपक बन जाऊँ !

सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

इसीलिए गाता हूँ नारे - डॉ. हरिओम पंवारे

मैंने जो कुछ भी गाया है तुम उसको नारे बतलाओ
मुझे कोई परवाह नहीं है मुझको नारेबाज बताओ
लेकिन मेरी मजबूरी को तुमने कब समझा है प्यारे |
लो तुमको बतला देता हूँ मैंने क्यूँ गाये हैं नारे ||
जब दामन बेदाग न हो जी
अंगारों में आग न हो जी
घूँट खून के पीना हो जी
जिस्म बेचकर जीना हो जी
मेहनतकश मजदूरों का भी
जब बदनाम पसीना हो जी
जनता सुना रही हो नारे
संसद भुना रही हो नारे
गम का अँगना दर्द बुहारे
भूखा बचपन चाँद निहारे
कोयल गाना भूल रही हो
ममता फाँसी झूल रही हो
मावस के डर से भय खाकर,
पूनम चीख़े और पुकारे
हो जाएँ अधिकार तुम्हारे
रह जाएँ कर्तव्य हमारे
छोड़ - छाड़ जीवन-दर्शन को तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||
निर्वाचन लड़ते हैं नारे
चांटे से जड़ते हैं नारे
सत्ता की दस्तक हैं नारे
कुर्सी का मस्तक हैं नारे
गाँव-गली, शहरों में नारे,
सागर की लहरों में नारे
केसर की क्यारी में नारे
घर की फुलवारी में नारे
सर पर खड़े हुए हैं नारे,
दाएँ अड़े हुए हैं नारे
नारों के नीचे हैं नारे
नारों के पीछे हैं नारे
जब नारों को रोज पचाने
को खाने पड़ते हों नारे
इन नारों से जान बचाने
को लाने पड़ते हों नारे
छोड़ गीत के सम्मोहन को तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||
जब चन्दामामा रोता हो
सूरज अँधियारा बोता हो
जीवन सूली-सा हो जाये,
गाजर-मूली सा हो जाये,
पूरब ज़ार-ज़ार हो जाये
पश्चिम को आरक्षण खाए
उत्तर का अलगावी स्वर हो
दक्षिण में भाषा का ज्वर हो
अपने बेगाने हो जायें
घर में ही काँटे बो जायें,
मानचित्र को काट रहे हों
भारत माँ को बाँट रहे हों
ग़ैर तिरंगा फाड़ रहे हों
अपने झण्डे गाड़ रहे हों,
जब सीने पर ही आ बैठें
भारत माता के हत्यारे
छोड़ - छाड़कर सूर-कबीरा तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||
कलियाँ खिलने से घबरायें
भौंरे आवारा हो जायें
फूल खिले हों पर उदास हों,
पहरे उनके आस-पास हों
पायल सहम-सहम कर नाचे,
पाखण्डी रामायण बाँचे
कूटनीति में सब चलता हो,
मर्यादा का मन जलता हो
उल्लू गुलशन का माली हो
पहरेदारी भी जाली हो
संयम मौन साध बैठा हो
झूठ कुर्सियों पर ऐंठा हो
चापलूस हों दरबारों में,
ख़ुद्दारी हो मझ्धारों में
बलिदानी हों हारे-हारे,
डाकू भी लगते हों प्यारे
छोड़ चरित्रों की रामायण तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||

लिपटें न आप मुझसे अमरबेल की तरहडा. विष्णु सक्सेना


अब चल रही है जिंदगी ढकेल की तरह।

घर मुझको लग रहा है किसी जेल की तरह।




कल मेरी ज़िदंगी थी जंज़ीर ज़ुल्फ की,

दम घोंटती है अब वही नकेल की तरह।




मैं खुद ही बिखर जाउंगा लगने से पेश्तर,

मत फेंकिये किसी पै मुझे ढेल की तरह।




मैं ग़म के बगीचे का इक सूखा दरख़त हूँ,

लिपटें न आप मुझसे अमरबेल की तरह।




फूलों ने दिये ज़ख्म तो शूलों ने सीं दिये

सब खेलते हैं मुझसे यूँ ही खेल की तरंह।




अब तो करो रहम हमें आँखें न दिखाओ

बातें ही लग रहीं हैं अब गुलेल की तरह।



कल मेंने दिल की आग पर सेंकी थीं रोटियाँ

आँसू सभी जला दिये थे तेल की तरह।

शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

आज फिर से है संकट खड़ा हो रहा-विवेकशील

आज फिर से है संकट खड़ा हो रहा।
कल था छोटा मगर अब बड़ा हो रहा।
बच सके मातृभूमि जतन कीजिये।
आगे बढ़ बांध सर पर कफन लीजिये।
आप अपनी ही मस्ती में क्यूं चूर हैं।
बस सुनामी की लहरें कुछ ही दूर हैं।
देशद्रोही का खेमा बड़ा हो रहा।
आज फिर से है..............................।

लूटा धन को है दौलत को सम्मान को।
तोड़े मन्दिर न छोड़ा है भगवान को।
और हम फिर से मन्दिर ही गढ़ते रहे।
भय के मारे थे गीता ही पढ़ते रहे।
गीता पढ़ ली न समझे अभी सार को।
डूबी नैया न थामा है पतवार को।
अपना मन पाप का इक घड़ा हो रहा।
आज फिर से है..............................।

हो मनुज तो स्वयं के ही हित कुछ करो।
जाग जाओ अरे स्वांस फिर से भरो।
हो सका जाग कर मृत्यु टल जायेगी।
कुछ किया तो ये सृष्टि बदल जायेगी।
छोड़कर लोभ, लालच जुड़ो प्रीति से।
संगठित हो करो काम कुछ नीति से।
देश पर आंख अपनी गढ़ा वो रहा।
आज फिर से है.............................।