अब चल रही है जिंदगी ढकेल की तरह।
घर मुझको लग रहा है किसी जेल की तरह।
कल मेरी ज़िदंगी थी जंज़ीर ज़ुल्फ की,
दम घोंटती है अब वही नकेल की तरह।
मैं खुद ही बिखर जाउंगा लगने से पेश्तर,
मत फेंकिये किसी पै मुझे ढेल की तरह।
मैं ग़म के बगीचे का इक सूखा दरख़त हूँ,
लिपटें न आप मुझसे अमरबेल की तरह।
फूलों ने दिये ज़ख्म तो शूलों ने सीं दिये
सब खेलते हैं मुझसे यूँ ही खेल की तरंह।
अब तो करो रहम हमें आँखें न दिखाओ
बातें ही लग रहीं हैं अब गुलेल की तरह।
कल मेंने दिल की आग पर सेंकी थीं रोटियाँ
आँसू सभी जला दिये थे तेल की तरह।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें